सब दिन होत न एक समान

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मैं विस्मित क्यूँकर होती हूँ ? यह चक्र नवीन तो नहीं है । यह कुछ वैसा ही तो है जैसे ग्रीष्मकाल में प्रचण्ड प्रभाकर से विरक्ति और शीतकाल में उसी के प्रदाह की आकुलता । यह वैसा ही तो है जैसे प्रतिवर्ष ऋतु का सामयिक प्रत्यावर्तन,  जैसे दिवस रात्रि का परिवर्तन । संभवतः मैंने इन सब  उपक्रमों को स्वयं के निकट रखकर भी उसी प्रकार से वैराग्य साधा जैसे पद्म-पत्र पारद से साध लेता है । वस्तुतः इनमें कभी मेरे अस्तित्व का द्वैत भाव वैसे न निमग्न हुआ जैसे मेरी बेटी में हो जाता है । इसीलिए जब यह क्रम मेरी बेटी के किसी उपक्रम में प्रकट होता है तो अद्वैत भाव से मैं विस्मित चकित और सस्मित अनुरागी हो जाती हूँ ।

एक समय था जब मेरी बेटी को घर के बाहर, पार्क में खेलने की उन्मत्तता थी । फिर यकायक उसे ‘होमसिकनेस (गृह्लिप्सा)’ हो गयी और उसने घर से बाहर खेलना तज दिया । घर में ही भांति-भांति के नन्हे-नन्हे उत्पात, नित नए अनुसंधान, अपने मित्रों को सहभागिता आमंत्रण और नित नयी मनोहारी बातें । एक माँ के रूप में मुझे कुछ विकलता हुई, मैंने अप्रत्यक्षतः प्रयास किया कि उसे किसी प्रकार घर के बाहर भेज सकूँ । पर विफलता मेरी प्रिय सखा बनी निरन्तर मेरे साथ ही रही । माँ को बहुधा व्यग्रता, विकलता और शोक का उत्सव मनाने का अधिकार संभवतः नहीं होता । तात्कालिक प्राथमिकताओं का आतिथ्य विलंबित करना अन्य कई कुत्सवों का मार्गदर्शक हो जाता है । इसलिए मैंने अप्रिय परिवर्तन को अपना लिया और धीरे-धीरे मुझे अप्रियता भी विस्मृत होने लगी । यह विस्मरण शक्ति भी मनुज को प्रकृति का अनूठा उपहार है । जो यह न होती तो अनायास उभर आने वाली स्मृतियों में आकर्षक माधुर्य कहाँ होता !

जैसे निशा के निशब्द, अचल पखेरू प्रथम प्रभा के प्रादुर्भाव होते ही नीड़ों से निकल अनुपम, आनंदमयी कोलाहल करते हुए गगन मिलन को चल देते हैं वैसे ही कुछ दिवस पूर्व मेरी चिया ने चहचाते हुए मुझे सूचित किया, “मैं पार्क जा रही हूँ” । मुझे घोर आश्चर्य हुआ – ऐसे कैसे ! जैसे-तैसे तो मैंने नयी परिस्थितियों से सामंजस्य साधा था, एक नैराश्य को स्वीकृति देकर आशा की चुटीली चुटकियों से स्वयं को मुक्त किया था । फिर से आशा की तितलियाँ मन में, पेट में और मस्तिष्क में पूरे दल बल के साथ नाचने लगीं । मैंने बेटी को बाय कहकर अपने सुखद भावों को निराशा की फटी चादर में छुपाने का यत्न किया । किन्तु न होंठों ने, न आँखों ने और न मन के घोड़े ने – किसी ने भी मेरे यत्न , प्रयत्न को सम्मान न दिया और सब स्वराज का स्वर मुखरित करते हुए निराशा मेरे पैरों को देकर चले गए ।

अब नित्य ही मेरी चिया को बाहर पार्क जाने की तीव्र उत्कंठा होती है । मुझे आश्चर्य इस बात पर होता है कि मैंने अपनी मति से कई तर्क गढ़ लिए थे – जैसे पार्क में सब कुछ पुराना हो गया है , कोई नवीन आकर्षण न रहा वहाँ, इसीलिए मेरी चिया का मन अब पार्क जाने का नहीं होता ।  यूँ भी आधुनिक और वातानुकूलित परिवेश के बच्चे प्रकृति और प्राकृतिक दशाओं से अलगाववादी होते हैं । किन्तु अब यह सभी अनर्गल और अनृत लग रहे हैं । इस लिए इस बार की यह अनुभूति सभी विवेचना और आलोचना की परिधि के बाहर है । मुझे प्रकृति की वृत्ति, प्रवृत्ति, कालचक्रों की आवृत्ति का मेरी बेटी में बड़ा ही आत्मीय साक्षात्कार हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि एक यात्रा वृत्त सम्पूर्ण हुआ है । ऐसा यात्रा वृत्त जो अपनी पुनरावृत्ति को उद्यत रहेगा और यह माँ निर्निमेष अपनी चिया की यायावरी पर मन्त्र-मुग्धा ।

image credit : https://www.flickr.com/photos/asianu/5260990912

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