हीरा, आज फिर से सिर झुकाये और सबसे नज़रें चुराती हुई, स्कूल बैग पीठ पर लादे तेज़ क़दमों से चलती जा रही है। बगल से किसी को आता-जाता महसूस करके वो गर्दन और भी ज्यादा झुका लेती। वो डर रही है कि कहीं कोई नज़रें मिलते ही उससे यह न पूछ ले-‘कल रात तुम्हारे घर से इतना शोर क्यूँ आ रहा था?’ वो सिकुड़कर छोटी होती जा रही है इस आशंका में कि कोई नज़रें मिलने पर व्यंग्य की मारक मुस्कान न फेंक दे उसकी तरफ़। सबने सुना ही होगा: पापा ग़ुस्से में आपे से बाहर चीख रहे थे और चिल्लाते हुए माँ को ज़ोर-ज़ोर से पीट रहे थे। माँ पहले बर्दाश्त करती रही, लेकिन शरीर के सहन करने की सीमा होती है। जब दर्द हद से बढ़ जाये, तो मुँह से पहले आह और फिर रोना छूट ही जाता है। माँ रोते हुए कहती जा रही थी-‘ग़लती हो गयी, माफ़ कर दो। अगली बार ऐसी गलती नहीं होगी।’
पापा को जैसे कुछ भी सुनाई ही नहीं दे रहा था। वो लात घूँसे के बाद अब डंडे से मारने पर आ चुके थे। और दर्द से बिलबिलाती माँ गठरी बनती जा रही थी और कह रही थी-‘तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, पैर पड़ती हूँ। कहीं ग़लत जगह लग गयी और मैं मर गयी तो? बच्चों का ख़याल करो। मोहल्ले वाले क्या कहेंगे। अगली बार ऐसी गलती नहीं होगी।’ हीरा कमरे के एक कोने में ऐसे गड़ गयी जैसे ज़मीन में बरगद की जड़ें। आँखों में दहशत भरी हुई, ज़ुबान में गाँठ पड़ी हुई और चेहरे पर नमकीन धारे सरकते हुए। फिर अचानक हीरा ने अपनी जड़ें ज़मीन से खींच ली और पापा का हाथ पकड़ने की कोशिश की, ‘पापा नहीं’- इतना ही निकल पाया उसके मुँह से। लेकिन तूफ़ान को रोकने की ताक़त कहाँ थी तेरह साल की हीरा में? पापा ने उसे दूर झटक दिया। वो दौड़कर माँ से लिपट गयी और इतनी देर में जो डंडा हवा में लहरा चुका था, वो सनसनाता हुआ हीरा की पीठ पर जा कर रुका। हीरा ने दर्द से तिलमिलाते हुए कहा-‘पापा, माँ से दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी। पापा छोड़ दो। पापा, प्लीज।’
पापा हीरा को नहीं पीटते थे। यह वार हीरा पर दुर्घटनावश हो गया था। पापा के हाथ रुक गये, वो होश में लौटे और उन्होंने लपक कर हीरा की पीठ पर हाथ फेरकर पूछा-‘बीच में क्यूँ आई? लग गयी?’ और माँ को इसका ज़िम्मेदार बताते हुए एक मुक्का माँ को और जड़ दिया। हीरा ‘पापा नहीं’ कहकर फूट फूटकर रोने लगी। पापा गुस्से में दूसरे कमरे में चले गये और थोड़ी देर में उनके खर्राटे की आवाज़ आने लगी। इधर हीरा और उसकी माँ दोनों रो रहे थे। माँ को बहुत चोट आई थी, तन से कहीं ज्यादा मन घायल हुआ था। पूरी रात माँ रो रोकर अपनी किस्मत को कोसती रही। हीरा जानती थी कि कल सुबह तक माँ को बुख़ार भी हो जायेगा। जब भी मार पिटाई होती थी, अगले दिन माँ को बुख़ार आ जाता था।
हीरा को कभी समझ नहीं आया कि माँ से ऐसी कौन सी गलती हो जाती है कि पापा पागल से हो जाते हैं? माँ इतनी लापरवाह कैसे हो जाती है कि इतनी पिटाई के बाद फिर से गलती कर बैठती है? पापा, माँ को इतना पीटने के बाद भी, क्यूँ शांत नहीं होते और न ही माँ से माफ़ी माँगते? अगले दो तीन दिन तक माँ ही पापा को मनाती दिखती है। हीरा सहम जाती थी कि माँ हिम्मत कैसे कर लेती है नाराज़ पापा के सामने जाने की! माँ हीरा को समझाती थी-‘औरतों की किस्मत ऐसी ही होती है। सबके साथ ऐसा ही होता है। औरत को धरती की तरह सहनशील होना पड़ता है।’ यह सुनकर हीरा सोचती- ‘फिर औरत का तन इतना नाज़ुक और इंसानी क्यूँ बनाया भगवान ने? औरत का तन तो फौलाद का होना चाहिये था।’ हीरा के सवालों का किसी के पास कोई जवाब नहीं था। हाँ, यह सब जानने के बाद हीरा ने कभी भी शादी न करने का फैसला इसी उम्र में कर लिया है।
हीरा ने पापा को दादी की हर छोटी बड़ी बात को सिर आँखों पर लेते देखा है। ख़ुद हीरा को पापा बहुत प्यार दुलार से पालते हैं। उसकी हर इच्छा को सुनते हैं और कभी-कभी तो हीरा के बिना कुछ कहे ही पूरा भी कर देते हैं। हीरा को समझ में आता है कि एक औरत का माँ होना, बहन होना और बेटी होना सुरक्षित है लेकिन उसका पत्नी होना बेहद ख़तरनाक है। नर्क से बुरी यातना है किसी की पत्नी होना।
मार पिटाई के दौरान एक डंडा खा लेना, बस इतना ही दुःख दर्द बाँट सकती है हीरा अपनी माँ का। क्या करे वो अपनी रोती बिलखती माँ का? कैसे मदद करे अपनी माँ की? माँ, परिवार की इज्ज़त बचाये रहने के लिये, इतना कष्ट भोगकर भी किसी से कुछ नहीं कहती। ऐसे में हीरा सरेआम किसी से कुछ मदद भी नहीं माँग सकती क्यूंकि इससे माँ की आहुति ही बेकार होती है। क्या सचमुच ऐसा ही हर घर में होता होगा?
होता ही होगा, वरना रात में कभी कोई मदद के लिये क्यूँ नहीं आता? होता ही होगा, वरना मोहल्ले के बड़े बुज़ुर्ग पापा को समझाते क्यूँ नहीं? होता ही होगा, वरना मोहल्ले की कोई आंटी अगले दिन घर के कामों में मम्मी की मदद के लिये क्यूँ नहीं आती? होता ही होगा, वरना कोई भी इस बारे में बात क्यूँ नहीं करता? होता ही होगा, वरना ख़ुद दादी ही क्यूँ नहीं डाँटती पापा को?
ऐसी ही उधेड़बुन में हीरा स्कूल पहुँच गयी। आज स्कूल में हीरा को कादम्बिनी पत्रिका के लिये कुछ लिख कर भेजना है। सभी लोग कुछ लिखेंगे, जिनका अच्छा होगा उन्हें पत्रिका में जगह मिलेगी। हीरा ने अपनी अध्यापिका से पूछा कि क्या वो अनामिका नाम से अपनी रचना भेज सकती है? अध्यापिका ने कहा- ‘फिर किसी को पता नहीं चलेगा कि तुम कितना अच्छा लिखती हो।’ हीरा ने कहा-‘यह पत्रिका मेरे घर भी आती है और मैं नहीं चाहती कि मेरे पापा को पता चले मैंने ऐसा लिखा है:
मेरी दादी, मेरी बुआ और मुझे
सम्भाल रहा था एक पुरुष।
नारी पर प्रेम, सम्मान और दुलार
लुटा रहा था एक पुरुष।
अपनी इच्छाओं को कुचलकर
दिन रात परिश्रम में खटकर
रिश्तों को सींच रहा था एक पुरुष।
एक नारी विशेष को पीड़ित, प्रताड़ित
कर रहा था वही पुरुष।
प्रेम, करुणा, पोषण और आश्रय एक हाथ में
दूसरे हाथ से यातनाओं का बवंडर
बाँट रहा था वही पुरुष।
मैं कभी उससे प्रेम करती, कभी थर्राती
कभी उसे मक्खन सा पिघलते देखती
कभी पहाड़ से भी पथरीला
दावानल से ज़्यादा धधकता
और सैलाब से ज़्यादा बेक़ाबू पाती
पुरुष मेरा दोस्त है या दुश्मन
लड़ूँ या उससे जोड़ूँ मन
बड़ी उलझन में बीता बचपन।।
माँ को चुपचाप सब सहते देखा
अफ़सोस, मायूसी के दलदल में धँसते देखा
सबके सामने नदी सा बहते और
एकांत में बर्फ़ सा जमते देखा
दिन का सन्नाटा, रातों का कोलाहल
जली कटी बातों का खौलता हलाहल
सब बिना विद्रोह के पीते देखा
इँसा को पंचिंग बैग में तब्दील होते देखा
अपनी दुर्गति को नियति मानते देखा
अपमान, अंगार के कंकड़ से
सदा दुखते रहे उसके नयन
बड़ी उलझन में बीता बचपन।।’
अध्यापिका से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई हीरा की, लेकिन उनकी मौन स्वीकृति ने एक और ठप्पा लगा दिया कि सचमुच ऐसा ही हर घर में होता होगा।
pic credit: https://pxhere.com/en/photo/630992
Bahut khoob. Kavita aur bhi nikhar kar aa gayi. Aisa hi hota hoga…Kitni khoobi se hamare samaaj mein galat ki acceptance ko aur embarrassment ko darshaya hai. Really nice.
LikeLiked by 1 person
thank you 🙏
LikeLike