ना माँग अपना हक़, सखी बनके सवाली
ना बात बने शांति से तो हो जा बवाली….
चेहरे को तेरे फूल, बदन को कहते हैं डाली
छीन ले कैची उनसे, जो बने फिरते हैं तेरे माली….
फुलझड़ी है पटाखा है, है तुझसे ही दिवाली
ना माँग अपना हक़ सखी बनके सवाली….
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कभी चाहती हूँ मैं विष सारा पी नीलकंठ हो जाना,
कभी चाहती हूँ भरी सभा में ग्वाले से हरि हो जाना,
कभी चाहती हूँ काली सा उपद्रव विकराल मचाना,
सत्य है, कि है मेरी पहचान तनिक सी,
मगर ना चूकूंगी बेटी हर हाल में साथ निभाना….
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लड़ने से क्यूँ डरते हो?
क्या कुरुक्षेत्र में नहीं दिखी, तुमको गीता जन्म की प्रसर्व वेदना
गर भविष्य नया चाहते हो तो
अतीत होने से क्यूँ डरते हो?
तुम लड़ने से क्यूँ डरते हो?
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